Tuesday, February 8, 2011

उसी आम के नीचे


उस तन्मयता में
तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपाकर
लजाते हुए
मैंने जो-जो कहा था
पता नहीं उसमें कुछ अर्थ था भी या नहीं:
आम्र-मंजरियों से भरी माँग के दर्प में
मैंने समस्त जगत् को
अपनी बेसुधी के
एक क्षण में लीन करने का
जो दावा किया थापता नहीं
वह सच था भी या नहीं:जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है
इस तन में काँप काँप जाता है
वह स्वप्न था या यथार्थ
-
अब मुझे याद नहीं
पर इतना ज़रूर जानती हूँ
कि इस आम की डाली के नीचे
जहाँ खड़े होकर तुम ने मुझे बुलाया था
अब भी मुझे कर बड़ी शान्ति मिलती है
,मैं कुछ सोचती नहीं
कुछ याद भी नहीं करती
सिर्फ मेरी, अनमनी, भटकती उँगलियाँ
मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा
वह नाम लिख जाती हैं
जो मैंने प्यार के गहनतम क्षणों में
खुद रखा था
और जिसे हम दोनों के अलावा
कोई जानता ही नहीं
और ज्यों ही सचेत हो कर
अपनी उँगलियों की
इस धृष्टता को जान पाती हूँ
चौंक कर उसे मिटा देती हूँ
(
उसे मिटाते दु: क्यों नहीं होता कनु!क्या अब मैं केवल दो यन्त्रों का पुंज-मात्र हूँ?
-
दो परस्पर विपरीत यन्त्र-उन में से एक बिना अनुमति के नाम लिखता है
दूसरा उसे बिना हिचक मिटा देता है!)
तीसरे पहर
चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हूँ
और हवा ऊपर ताजी नरम टहनियों से,और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों
से खेल करती है
और मैं आँख मूँद कर बैठ जाती हूँ
और कल्पना करना चाहती हूँ कि
उस दिन बरसते में जिस छौने को
अपने आँचल में छिपा कर लायी थी
वह आज कितना, कितना, महान् हो गया है
लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती
सिर्फ-जहाँ तुमने मुझे अमित प्यार दिया था
वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, तिनके, टुकड़े चुनती रहती हूँ
तुम्हारे महान् बनने में
क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!
वह सब अब भी
ज्यों का त्यों है
दिन ढले आम के नये बौरों का
चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना
जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना
नया है
केवल मेरा
सूनी माँग आना
सुनी माँग, शिथिल चरण, असमर्पिता
ज्यों का त्यों लौट जाना…….
उस तन्मयता मेंआम्र-मंजरी से सजी माँग को
तुम्हारे वक्ष में छिपाकर लजाते हुए
बेसुध होते-होते
जो मैंने सुना था
क्या उसमें भी कुछ अर्थ नहीं था?
Contributed By : Mukesh Kumar Haymukesh2007@gmail.com

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